Wednesday, September 14, 2011

यादें .... याद आती हैं ....


राह तकी थी इस रस्ते पे चलने की कबसे

मंजिल को पाने की जिद्द थी पहले सबसे

बड़े उत्सुक थे उम्र के इस पड़ाव को पाने को

इस कॉरपोरेट की भीड़ में खो जाने को

ना जाने क्यों मन में आज एक बात आती है

वक़्त यही रुक जाये ऐसी उम्मीद बंध जाती है

उन बीते पालो की याद से अब तो आँखे भर आती हैं

कहा करती थी ये ज़िन्दगी के सबसे मुश्किल साल है स्कूल के

अब तो वो साल परियो की कहानियो की याद दिला जाती हैं

सोचती हूँ वो खेलते दिन वो जागती रातें कहा गई

अब तो कुछ खामोश बातें , कुछ बोलती यादें रह गई

अब मुझसे अपने होमेवोर्क कौन करवाएगा ?

अब बगल के खेत से गन्ने तोड़ के कौन लायेगा?

हर रोज़ सुबह अब मेरे नाश्ते में पराठे कौन खिलायेगा

कौन मेरे बैग में रखे chocolate अब चुरा के खायेगा

कौन अब प्यार से timon कह के बुलाएगा

कौन अब "चुप कर उल्लू" कहके मेरी ही बात मुझे समझेगा

कब हम अपने स्कूल बस की हवा निकालेंगे

कब बारिश में भी फूट बाल और वोल्ली बाल खेलेंगे ?

अब teachers के अलग अलग नाम कब रख पाएंगे

अब दूर तक अपनी सएकिल से कब जायेंगे

उमर के जिस मोड़ पे हम खड़े है

जाने किन किन मुश्किलों से लड़े है

अपनी अपनी ऑफिस में सब बड़े होंगे

पर फेल होने पे भी तिस मार होने का एहसास कौन दिलाएगा

कौन अब छोटे बाल कटाने पे बंदरिया कह के चिड़ायेगा

कौन हर साल राखी पे अगले साल कार दिलाने के सपने दिखायेगा

उन दिनों कितनी जल्दी में बड़ा होना था

बड़े हो कर प्यार के एहसास भी करना था

अब यहाँ आकर अक्सर ये सोचती हूँ

की इन् टूटे दिलो से अच्छा तो अपना वो फूटा घुटना होता था

काश वो दिन कही से लौट आते

फिर से वो ही दोस्त कही से मिल जाते

पर अब तो सब अपने अपने कामो में व्यस्त है

इसी लिए किसी को ढून्ढ पाना मुमकिन नही

बस यही सोच के उन यादो में उन सरे दोस्तों को और हसने रोने के बहाने ढून्ढ लेती हूँ

Thursday, July 28, 2011

....

जानती हूँ ये सब एक छलावा है...एक सपनो की दुनिया जहा कुछ भी अस्थावर नही है...तुम हवा के झोके की तरह आये और मन के उपवन में बहार सा आ गया...खुली आखों में हजारों सपने अठखेलिय लेने लगी  ... आचानक ही जीवन मुल्वान लगने लगा... मानो जीने की कोई नई वज़ह मिल गयी हो...हर अनर्थ बात में कोई अर्थ नज़र आने लगा हो ...सुबह अब भी पहले जैसी ही थी पर आचानक ही सूरज नया सा लगने लगा...शाम अब मनहूस नही लगती है ...सब कितना अच्छा लगने लगा है...पर ये सच ही तो है कि ये सपनो की दुनिया थी...आखँ खुली तो देखा सब पहले जैसा ही तो है...बस एक पन्ना ही तो पलटा है ज़िन्दगी की किताब का और ज़िन्दगी बदल गई ...वो बहार जो कुछ पल पहले आई थी अब कही नही है...वो सूरज पहले जैसा प्रचंड मुझे जलने को मुह फाड़े खड़ा है....शाम फिर से मायूस रहने लगी है...जीवन में कोई रंग नही रह गया ...बेवजह सी हो गयी ये ज़िन्दगी फिर से... कोई राह ढूँढ़ते नही दिख रही...अब तो अपने जन्म दाता से भी कुछ कहने की हालत में नही हूँ...आखिर ये सपने हमेशा रातो के अंधेरो में ही क्यों आते है...जिन्हें सुबह की रौशनी से डर लगता है...सुबह के आते ही वो मुझे छोड़ के दूर क्यों चले जाते है...और ये सुबह हर रोज़ तो रौशनी ले के तो आती है पर ना जाने क्यों मेरे ही जीवन का अँधेरा मिटाना भूल जाती है...तुम भी तो उसी सुबह की तरह मुझे भूल गये...तुम आये ही क्यों थे...वो अँधेरे , वो पतझड़ ,उस मनहूसियत के साथ जीना सिख लिया था मैंने...फिर उम्मीद के वो दिये जलाए ही क्यों थे...

Saturday, April 16, 2011

मैं नदी की धार...


मैं नदी की धार सी बहती चली गयी...पर्वतो से
कर ,चट्टानों से टकरा कर चूर चूर हुए अस्मिता मेरी...
फिर भी बड़ती चली गयी ...
फिर भी भिगोया अपने प्रेम में सभी को...
सबको ले कर बढ़ना था आगे तभी तो...
सब के दुखो को अपने में डुबोती चली गयी...
चूर चूर हुए अस्मिता मेरी...फिर भी बड़ती चली गयी ...
चाहे हो तपती धुप जेठ की...या पूस की रात...
हर हाल में बढ़ना है आगे लेकर सब का साथ...
कर के सब को तृप्त ... मैं बहती चली गयी ...
चूर चूर हुए अस्मिता मेरी...फिर भी बड़ती चली गयी ...
फिर आएगा बसंत मेरे जीवन में...भर देगा जो खुशिया मेरे कण कण में...
इस आस में बांध के सब सहती चली गए...
चूर चूर हुए अस्मिता मेरी...फिर भी बड़ती चली गयी ...
छाई है जो दूर ग्रीष्म की प्रचंड ये....टूटे ना मेरे सपने सुहाने बसंत के...
ये सोच कर मैं अब तक डरती चली गयी...
चूर चूर हुए अस्मिता मेरी...फिर भी बड़ती चली गयी ...
पर अरमान नही है सपनो का...चाहे टूटे या बिखर जाए ...
अपने बिखरे हर कण से प्रकृति को नव निर्मित करती चली गए...
चूर चूर हुए अस्मिता मेरी...फिर भी बड़ती चली गयी ...

Friday, April 8, 2011

तब तुम आना...


जब सब मुझे अकेला छोड़ दें...
मेरे राहों को जब तनहाई की तरफ मोड़ दें...
मेरे दिल को जब खिलौना समझ तोड़ दें...
मेरे माथे पे प्यार से चुम्बन रखने...
तब तुम आना...
जब अपने आप से मैं डरने लागु....
हर कदम में लड़खड़ा के चलने लागु...
खुद पे जब ना विश्वास रहे...
मेरे आत्मविश्वास को फिर बढ़ने ...
तब तुम आना...
जब जीवन की विसम्ताओं से मैं घबरा जाऊं...
दायित्वों को निभा के थक जाऊं ...
जब कोई ना हो जो साथ रहे...
मेरा हाथ थामने ...
तब तुम आना....
निराशा की जंजीरें जब मुझे जकड लें..
काले अँधेरे में मैं जब घिर जाऊं ...
जब कही कोई ना राह दिखे ...
मेरे जीवन में दीप जलने...
तब तुम आना...

Wednesday, April 6, 2011

सपने की ख़ोज...


अपने घर के बंद उस दरवाजे से पुछा
अपनी गली के उस चौराहे से पुछा...
कभी तो देखा होगा मेरे सपनो को वहा से चलते हुए...
किस्मत और निराशा की आग में जलते हुए...
पुराने उस नीम के पेड़ से पुछा...
रास्ते में भटकी उस भेड़ से पुछा...
कभी तो पुकारा होगा मेरा नाम ले के ...
कभी तो निकले होंगे मेरे सपने उन्हें सलाम दे के ...
फुनगी पे लगे उस मंजर से पुछा...
खाली पड़े उस खेत बंजर से पुछा...
कभी तो देखा होगा सपनो को मस्ती में सनकते हुए...
कभी तो देखा होगा उन् नन्हे सपनो को पनपते हुए...
आते जाते हर त्यौहार से पुछा...
सावन की पहली उस फुहार से पुछा...
कभी तो देखा होगा सपनो को नया कुछ सीखते हुए...
अपनी ही फुहार में मस्त हो भीगते हुए...
पावन उस नदी की धारा से पुछा ...
उसी नदी के किनारे से पुछा...
उन्होंने तो देखा होगा सपनो को यही जलते हुए....
अपनी धारा में ही कही बहते हुए...
पर किसी ने कुछ ना बतया ...
मुझे मेरे घर निराश ही लौटाया...
अँधेरे में बैठी कुछ सोचने लगी...
तो लगा सपने को ढूँढना भी तो एक सपना ही था...
मन में ही चुप के बैठा था कही...
वो कभी कही गया ही नही...
वो तो हमेशा से अपना ही था...





Saturday, March 26, 2011

जब मैं ना रहूँ


जब मैं ना रहूँ ... इतना याद रहे...
मेरे साथ बहे वो थोड़े आंसू ...और खुल के वो जोर का हसना याद रहे ...
कभी जब भीड़ में तन्हा पाओ खुद को...थी कोई परायी जो अपनी थी ये याद रहे...
जब कभी परेशान हो दुनिया की बातों से...थी कोई पगली सी जो थोड़ी सायानी थी ये याद रहे...
अपनों के संग जब भी दीपों का भी त्यौहार मनाओ तुम...जला था कोई दिए सा तुम्हारे लिए ये याद रहे...

जब कभी दुनिया रंगे तुम्हए अपने रंगों में...रंगा था कोई तुम्हारे रंग में कभी ये याद रहे...
जब कभी नींद ना आये रातों में...हमारा साथ में वो रात भर जागना याद रहे...
कभी जब गर्मी में जल के आओ ...तो वो कड़ाके की ठण्ड में कुल्फी खाना याद रहे...


जब कभी कोई सोचा काम हो जाये ...तो उस पे "ये अच्छा प्लान है " कहना याद रहे...



जब कभी कोई टेबल के निचे बैठ के रोटी खाए ...तो उसे प्यार से बिल्ली बुलाना याद रहे...
जब मैं ना रहूँ ... इतना याद रहे...






Thursday, March 10, 2011

इच्छा....


मन में उठी ये इक्षा अभी अभी....
की सब कुछ छोड़ दूं ... इन बन्धनों को अब बस तोड़ दूं...
पता नही किसी को ...क्या है नियति मेरी ....
अनजाने इन पथों पे मैं...बिना सोचे विचारे ही भटकती हूँ ....
कहाँ ..न जाने कहाँ...
सोचने पर भी कुछ समझ नही पाती...
उस आती ध्वनि की दिशा नही पाती...
उस अनजाने मंजिल का कोई छोर नही पाती ....
अयाचित जीवन यूं ही जी रही हूँ...
मानो अनगढ़ पत्थर सी खड़ी रो रही हूँ....
सोचती हूँ धूल बन बहती हवा के साथ कही बह जाऊं...
इस असीमित विस्तार में कहीं खो जाऊ ....
कहीं खो जाऊं ....

Wednesday, March 9, 2011

मुक्ति का बोध


कौन है मुक्त यहाँ... ???
मैं नही , हाँ कोई भी नही...
मुक्ति शायद कर्तव्यों को निभाने में , अपना अस्तित्वा खो चुकी है...
अंतर मन के द्वन्द में कही बिखर चुकी है...
दायित्वों के निचे कही दब चुकी है...
मैं क्या इस ब्रह्माण्ड में घूमती धरती भी मुक्त नही है...
गुरुत्वाकर्षण बलों से नियन्त्रित उसकी परिक्रमा भी स्वतंत्र नही...
मेरा ह्रदय भी तो धमनियों और शिराओ से युक्त है॥
मेरा अपना स्पंदन ही कहा मुक्त है ...
खुली हवा ... पूर्ण प्रकाश में भी मुक्ति नही मिलती...
तो ये मुक्ति का बोध क्यों होता है...???

Sunday, February 20, 2011

मुलाकात....


हमारी दो पल की वो मुलाकात कम थी
वो बिन मौसम हुई बरसात कम थी
तुम भी चुप थे , मैं भी चुप थी...
पर आखों से हुए वो आखों की बात कम थी ...
समंदर की लहरों पे वो साथ चलना...
सूरज को क्षितिज पे ढलते हुए देखना ....
तुम साथ थे ,पर वो सुहानी शाम कम थी...
एक अनजाने परिवार से वो मिलना...
थोरी देर में ही उसका अपना बनना ...
सब कितने खुश थे, पे वो खुशी निभाने को वो रात कम थी...
मंदिर की सीढियों पे वो साथ चढ़ना...
पूजा की थाली हाथ में ले के चलना...
दोनों मांग रहे थे एक ही दुआ , पर दुआ में वो आस कम थी...


Monday, February 7, 2011

दिल चाहता है......


फिर से सपने सजाने को दिल चाहता है......
तुमसे मिल के आने को दिल चाहता है .....
है तुम्हारे मानाने का अंदाज़ कुछ ऐसा.....
की फिर से रूठ जाने को दिल चाहता है.....
तुम्हारे साथ हर पल है इतना खुबसूरत ....
की हर पल में बस जाने को दिल चाहता है.....
तुमसे हर सुबह होती है इतनी सुहानी.....
की हर रात को भूल जाने का दिल चाहता है....
हर शाम है दिलकश तुम्हारे होने से....
की हर सुबह को फूक से उड़ाने को दिल चाहता है....
नयी मंजिल मिली है मुझे तुम में...
की हर खुशी को तुमसे मिलाने को दिल चाहता है ....
ज़िन्दगी को खुशियों से भर दिया है तुमने ....
की अब तुम्हे दिल में सजाने को दिल चाहता है...
फिर से सपने सजाने को दिल चाहता है......
तुमसे मिल के आने को दिल चाहता है .....

Tuesday, January 25, 2011

गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं


२६ जनवरी और १५ अगस्त को छुट्टी की तरह मानते है...

आस-पास कुछ गलत हो तो खुद से चुनी गई सरकार को बुरा भला सुनाते है...

हर नियम,क़ानून को तोड़ते मरोडते चले जाते है...

फिर भी हम गर्व से खुद को हिन्दुस्तानी कहलवाते है...

गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं