Thursday, July 28, 2011

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जानती हूँ ये सब एक छलावा है...एक सपनो की दुनिया जहा कुछ भी अस्थावर नही है...तुम हवा के झोके की तरह आये और मन के उपवन में बहार सा आ गया...खुली आखों में हजारों सपने अठखेलिय लेने लगी  ... आचानक ही जीवन मुल्वान लगने लगा... मानो जीने की कोई नई वज़ह मिल गयी हो...हर अनर्थ बात में कोई अर्थ नज़र आने लगा हो ...सुबह अब भी पहले जैसी ही थी पर आचानक ही सूरज नया सा लगने लगा...शाम अब मनहूस नही लगती है ...सब कितना अच्छा लगने लगा है...पर ये सच ही तो है कि ये सपनो की दुनिया थी...आखँ खुली तो देखा सब पहले जैसा ही तो है...बस एक पन्ना ही तो पलटा है ज़िन्दगी की किताब का और ज़िन्दगी बदल गई ...वो बहार जो कुछ पल पहले आई थी अब कही नही है...वो सूरज पहले जैसा प्रचंड मुझे जलने को मुह फाड़े खड़ा है....शाम फिर से मायूस रहने लगी है...जीवन में कोई रंग नही रह गया ...बेवजह सी हो गयी ये ज़िन्दगी फिर से... कोई राह ढूँढ़ते नही दिख रही...अब तो अपने जन्म दाता से भी कुछ कहने की हालत में नही हूँ...आखिर ये सपने हमेशा रातो के अंधेरो में ही क्यों आते है...जिन्हें सुबह की रौशनी से डर लगता है...सुबह के आते ही वो मुझे छोड़ के दूर क्यों चले जाते है...और ये सुबह हर रोज़ तो रौशनी ले के तो आती है पर ना जाने क्यों मेरे ही जीवन का अँधेरा मिटाना भूल जाती है...तुम भी तो उसी सुबह की तरह मुझे भूल गये...तुम आये ही क्यों थे...वो अँधेरे , वो पतझड़ ,उस मनहूसियत के साथ जीना सिख लिया था मैंने...फिर उम्मीद के वो दिये जलाए ही क्यों थे...