हजारो अनजाने चेहरों के बीच ... वो अपना सा नज़र आता है...
खुश होते है हम , जब वो कही मुस्काता है...
महसूस करते हम जलन उसकी ... जब सूरज उसे जलाता है ...
फिर पूछती है चेतना हमसे , ये रिश्ता क्या कहलाता है ...
उस के रंग में , अपना मन रंगता चला जाता है ...
जब अपनी तोतली जुबान में , वो अपनी भावना दर्शाता है ...
अनायास ही उसकी ओर धयान चला जाता है ...
कही दूर से जब वो नाम ले के बुलाता है ...
फिर पूछती है चेतना हमसे , ये रिश्ता क्या कहलाता है ...
यु ही मिला था वो सड़क के किनारे ...
अपने भरोसे अपनी भाग्य के सहारे...
ना नाम पता ना जात पता,
ना ही ये की कौन उस के जन्म दाता है ...
फिर पूछती है चेतना हमसे , ये रिश्ता क्या कहलाता है ...
बहुत खुब...दो अर्थ का बोध कराती...ये रिश्ता क्या कहलाता है....इक अपने अपनोँ के साथ,औलाद के साथ माँ बाप का रिश्ता.........दुसरा वो इक लावारिस सड़क के किनारे खड़ा ,नहीं जानते हम उसे पर क्यों ऐसा लगता है कि वो बदसूरत,गंदा दिखने वाला छोटा बच्चा भी अनायास ही हमे अपनी ओर सम्मोहित करता है....और हम खुद से पूछते है....ये रिश्ता क्या कहलाता है।..........शब्द नहीं है मेरे पास,क्या कहूँ...बहुत ही संवेदनशील रचना...प्रभावशाली।
ReplyDeletethanks a lot bhai...tumhari tarah to likhna nhi aata bus jo mehsus karti hoon usse hi shabdo main piro deti hoon... :)
ReplyDeleteyahi to ek real poet ki pehchaan hai....u r best di......ur thought is very nice...bas ek guzaarishhhhhhhh.....ek hafte me kam se kam ek kavita to apne blogg me jarur daliye.....
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