Saturday, June 5, 2010

ये रिश्ते ...

ये रिश्ते है रेत से ...
उस बंज़र से खेत से...
हम जहा बोते है अपनों के बीज ...
सींचते है उन्हें अपने प्यार से...
जिम्मेदियो और कर्तव्यों की खाद दाल के...
पोसते है उन्हें अपनी इक्षा और स्वार्थ से...
फिर आता है मौसम फसल (रिश्तो) के पकने का...
बूढ़ी हड्डियों के बोझ से हमारे थकने का...
पके फसलो को या तो हम काट देते है...
या हवा ले जाती है उन्हें दूर हमसे...
सुखाड़ के वक़्त जब हम ढूँढ़ते है उन्हें...
जरुरत में अपनों को जब ढूँढती है आखे...
दिलशा देती है वो फसल हमे दूर से...
थके हाथो से मुट्ठी कसने की कोशिश में ...
फिसलते जाते है रिश्ते अपने हाथ से...
क्युकी ये रिश्ते है रेत से...
उस बंज़र से खेत से...