Saturday, April 16, 2011

मैं नदी की धार...


मैं नदी की धार सी बहती चली गयी...पर्वतो से
कर ,चट्टानों से टकरा कर चूर चूर हुए अस्मिता मेरी...
फिर भी बड़ती चली गयी ...
फिर भी भिगोया अपने प्रेम में सभी को...
सबको ले कर बढ़ना था आगे तभी तो...
सब के दुखो को अपने में डुबोती चली गयी...
चूर चूर हुए अस्मिता मेरी...फिर भी बड़ती चली गयी ...
चाहे हो तपती धुप जेठ की...या पूस की रात...
हर हाल में बढ़ना है आगे लेकर सब का साथ...
कर के सब को तृप्त ... मैं बहती चली गयी ...
चूर चूर हुए अस्मिता मेरी...फिर भी बड़ती चली गयी ...
फिर आएगा बसंत मेरे जीवन में...भर देगा जो खुशिया मेरे कण कण में...
इस आस में बांध के सब सहती चली गए...
चूर चूर हुए अस्मिता मेरी...फिर भी बड़ती चली गयी ...
छाई है जो दूर ग्रीष्म की प्रचंड ये....टूटे ना मेरे सपने सुहाने बसंत के...
ये सोच कर मैं अब तक डरती चली गयी...
चूर चूर हुए अस्मिता मेरी...फिर भी बड़ती चली गयी ...
पर अरमान नही है सपनो का...चाहे टूटे या बिखर जाए ...
अपने बिखरे हर कण से प्रकृति को नव निर्मित करती चली गए...
चूर चूर हुए अस्मिता मेरी...फिर भी बड़ती चली गयी ...

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